Sunday, March 31, 2024

स्त्रीधन

अगहन की संध्या...और चारों ओर कोहरा ही कोहरा. हड्डियों तक को कंपा देने वाली शीत लहर के मध्य आज वह उद्विग्न थी. उसका मन बेचैन था. ठण्ड का लेशमात्र असर भी उस पर न पड़ रहा था. कारण कि किसी बड़े घर-परिवार के लोग उसे देखने आ रहे थे. वह चेतनाशून्य थी. होंठ जम चुके थे.. ठण्ड से नहीं.. अपितु वेदना से.. आतंरिक रूदन से...


बीएससी प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होने के बाद उसने अपने पैरों पर खड़े होने का निश्चय किया था. पर सामाजिक मर्यादाओं ने मानो उसके सपनों के पर ही काट दिए. घर की बड़ी बेटी होने के नाते सबसे पहले उसकी विदाई तय थी. पीछे छोटे भाई बहन तो थे ही, वृद्ध माँ बाप की भी चिंता थी. आज तक तो ज़िद कर के स्नातक कर लिया.. पर अब आगे उसे धुंध ही धुंध नज़र आ रहा था. वह मना भी तो नहीं कर सकती थी.


"दीदी...लड़के वाले आ गए", छोटी ने उत्साह से कहा. कीर्ति ने धीमे स्वर में कहा, "हाँ, मैं तैयार हूँ." उसकी मनोदशा को समझने वाला कोई नहीं था. वह तो बस किसी चमत्कार की उम्मीद कर रही थी. उसने मन ही मन भगवान को याद किया और चाय लेकर किचन से बाहर आ गयी. कीर्ति के पिता श्याम बाबू ने उत्साह भरे स्वर में परिचय दिया,"ये है हमारी बिटिया... बीएससी किया है इसी साल... रसोई से लेकर सिलाई कढ़ाई सब कुछ जानती है... पूरा घर अच्छे से संभाल लेती... स्कूल से लेकर कॉलेज तक सब की लाडली है... " बात को बीच में ही काटते हुए सेठ जी बोले, "वो सब तो ठीक है.. श्याम बाबू, आपने कहा तो लड़की सुशील ही होगी... मुद्दे की बात करते हैँ... तो सुनिए आपको 5 लाख नकद, सोने के जेवर, घर गृहस्थी के तमाम सामान और एक मोटरगाड़ी हमारे राजू के नाम भेंट करनी होगी. तभी रिश्ता पक्का होगा. अरे.. घबराइए नहीं.. स्त्रीधन समझ कर दे दीजिये.. आखिर ससुराल भी तो बिटिया का ही घर है.."


श्याम बाबू को कुछ समझ नहीं आ रहा था.. आखिर इतना बड़ा सेठ इतना लोभी कैसे हो सकता है? अपनी बिटिया के गुणों को नज़रअंदाज़ कर उसे रुपयों मे तौल रहा है? कुछ देर मौन रहने के बाद श्याम बाबू बोले, " सेठ जी, ये तो बहुत ज़्यादा हैं, बिटिया तो पढ़ी लिखी है...नौकरी करने में भी सक्षम है... अगर अवसर मिले तो.." सेठ जी तिलमिला कर बोले," पढ़ी लिखी का मैं अचार डालूँ... देखिये श्याम बाबू जितना बोला हूं उससे एक पैसा कम नहीं.. अपनी बिटिया देनी है तो दो.. वरना हमारे राजू के लिए दूसरी देख लूंगा." स्वाभिमानी कीर्ति अपने पिता की बेज़्ज़ती खड़ी खड़ी न सह सकी... ऊँचे स्वर में सेठ जी को कहा, "कोई बाजार नहीं है जो मेरी बोली लगा रहे... अगर दूसरी देखनी है तो देख लीजिये... आप स्वतंत्र हैं..."श्याम बाबू बीच बचाओ की कोशिश करते ही थे कि तिलमिला कर सेठ जी उठे और चिढ़ कर बोला," हुँह...देख लो पढ़ा लिखा कर बहुत ही काबिल बना दिया है इसके बाप ने...चलो बेटा ये रिश्ता नहीं हो पायेगा..." यह कहते हुए वे दरवाज़े कि ओर चल दिए... इतने में कीर्ति ने तपाक से बोला, "मेरी काबीलियत का तो पता नहीं पर अपने बेटे को इतना काबिल बना देते कि वह किसी "स्त्रीधन" पर निर्भर होने कि बजाय आत्मनिर्भर बन जाता... आप जैसे बाहुबली लोग ही समाज में कुरीतियों को पनाह देते हैं और बढ़ावा भी.... " सेठ जी मौन होकर निकल गए.


कीर्ति को समझ नहीं आ रहा था कि उसने सही किया या गलत... पर इतना ज़रूर था कि अपने और अपने परिवार कि गरिमा को भंग नहीं होने दिया. श्याम बाबू वैसे तो शादी को लेकर परेशान रहते थे.. पर फिलहाल अपनी "पुत्री रूपी धन" को परिपक्व स्थिति में देखकर मन ही मन मुस्कुरा रहे थे. 

Tuesday, November 15, 2022

परिवर्तन

आज वातावरण में अलग ही चहल पहल थी. चुनाव के नतीजे को लेकर रोड से ऑफिस तक सबकी ज़बान पर बस यही चर्चा थी. चाय की चुस्की लेते हुए शर्मा जी ने अख़बार उठाया और झल्लाते हुए कहा, "आज चाहे जीत किसी की भी हो, कोई परिवर्तन की बयार नहीं बहने वाली. सब केवल सत्ता के लोभी होते हैँ, जनता से लाख वायदे कर खुद हवा हो जाते हैँ .." बीच में ही बात काट कर रमेश बाबू ने कहा, "अगर ऐसा ही था तो वोट क्यों दिया?" इसपर शर्मा जी ने तपाक से बोला, " आज़ाद मुल्क, वोटिंग निःशुल्क.." आसपास के लोग ठहाका मार कर हंस पड़े.


रमेश बाबू स्वयं देशभक्त किस्म के इंसान थे. इस भांति स्वतंत्रता और मौलिक अधिकार का मज़ाक उनसे बर्दाश्त न हुआ. बोले, "लोकतंत्र में वास्तविक सत्ता राष्ट्र के नागरिकों के पास होती है. इसलिए इसे प्रजातंत्र भी कहते हैँ. पर आज हम अपनी उन्नति के लिए, अपने देश और समाज के परिवर्तन के लिए, केवल नेताओं पर आश्रित हैँ. क्या हमारा कोई दायित्व नहीं? कर्त्तव्य विमुखता का वीभत्स उदाहरण तो यहाँ हमारे सरकारी ऑफिस में प्रायः दिख जाता है..जब पगार लेते वक्त कोई ये नहीं कहता कि इतना क्यों मिल रहा...पर काम करते वक्त नाना प्रकार के बहाने याद आते...और तो और...रिश्वतखोरी के सर्प ने पूरी व्यवस्था को विषाक्त कर दिया है...क्या इस जर्ज़र स्थिति का दोषारोपण भी हम नेताओं पर करें?"


सेवानिवृत्ति की दहलीज पर पहुँच चुके रमेश बाबू के इस तर्क का उत्तर किसी के पास न था... या फिर यूँ कहें कि कोई उनसे उलझना नहीं चाहता था. शर्मा जी जो खुद एक बेईमान इंसान थे...अख़बार पर नज़र गड़ाए स्वयं को इस वार्तालाप से विलग करना चाह रहे थे.  "कृत्रिम जीवन शैली ने न केवल मनुष्य की सोच को संकुचित कर दिया है.. बल्कि उसे एक असामाजिक प्राणी भी बना दिया है...जो सिर्फ अपना उल्लू सीधा करना जानता है"- बड़बड़ाते हुए रमेश बाबू अपनी कुर्सी से उठ कर चल दिए. शर्माजी ने उनसे त्वरित टिप्पणी की अपेक्षा न की थी.


रजिस्ट्रार ऑफिस मे यूँ तो कोलाहल का माहौल रहता है.. पर आज रमेश बाबू के वक्तव्य से मानो परिवर्तन की कली प्रस्फुटित हुई हो.  पास ही बैठे जुम्मन काका मुस्कुरा रहे थे...शायद यही परिवर्तन का शंखनाद था.


Saturday, February 2, 2019

टॉमी

स्वछंदता के आकाश में उन्मुक्त भाव से विचरण करने वाले उस प्राणी का ह्रदय आज उद्विग्न था एवं मन अशांत।आज उसके व्यवहार में उच्छृंखलता नहीं अपितु निष्क्रियता का भाव सहज नज़र आ रहा था। रह रह कर वह कर्राह रहा था और इस पीड़ा का अनुभव करके मैं द्रवीभूत हो उठता था। आज मेरे मन में एक अजीब सी व्यग्रता थी...अजीब सा कौतुहल था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो प्रकृति किसी अनहोनी का संकेत दे रही हो!

टॉमी...हाँ यही नाम दिया था हमने उसे। ठीक एक साल पहले हमारे घर के गलियारे में उसका जन्म हुआ था।उसके मुखमंडल पर शिशु-सी मासूमियत थी, जो किसी पाषाण ह्रदय को भी पिघलाने में सक्षम थी।पानी से भरी विस्मयपूर्ण आँखें ऐसी प्रतीत होती थीं मानो अभी छलक पड़ेंगी।भूरे-सफ़ेद चित्तकबरे रंग के उस पिल्ले को हमने अपने पास रखने का निर्णय लिया।शैशवावस्था में अमृत रूपी मातृत्व स्नेह से दूर उस जीव ने मानव सान्निध्य में अपने जीवन का अध्याय आरम्भ किया।

मार्च के उन दिनों मैं बारहवीं बोर्ड की परीक्षा दे रहा था। व्यस्तता एवं मानसिक ऊहापोह के मध्य भी मैं टॉमी के साथ कुछ समय व्यतीत कर ही लेता था। उसे दूध के साथ बिस्कुट एवं रोटी खूब भाता था। चावल उसे पसंद न था। दूध मिश्रित चावल से भी वह दूध चाट कर चावल अलग कर देता था। हम उसे प्रायः बांध कर रखते थे, अन्यथा गेट के बाहर वह ऐसे भागता जैसे स्कूल की आखिरी बेला के उपरान्त छुट्टी होने पर बच्चे स्वतंत्रता की ताजगी में सांस लेते हैं। गेट के बाहर दूसरे बड़े कुत्तों का डर भी था। अतः जब भी वह बाहर निकलता, उसके पीछे मैं या मेरे घर से कोई ज़रूर जाता और उसे स्नेहपूर्वक बुलाता। बुलाने पर वह फर्राटेदार गति से हमारी ओर आता और हमसे क्रीड़ा करना चाहता। हमारी छत्रछाया में वह पल्लवित, पुष्पित होने लगा और समय के परिप्रेक्ष्य में अनुशासित एवं व्यवहारकुशल बन गया। पहले की अपेक्षा उसके व्यवहार में हमारी अवहेलना नदारद हो गई। परिणामस्वरूप हमारा भावात्मक लगाव प्रगाढ़ होने लगा। जुलाई में मैं आगे की पढाई के लिए बाहर चला गया। बाद में घर फ़ोन किया तो ज्ञात हुआ कि जिस दिन मैं घर से निकला, उस दिन वह अत्यंत दुखी था.....शांत था......मानो उसके चेहरे की कांति शून्यता के तमस में विलुप्त हो गयी हो।


साल भर के लम्बे अंतराल के पश्चात मैं ग्रीष्मावकाश में घर आया। टॉमी एक वर्ष का हो गया था। उसके व्यवहार में परिपक्वता थी। हमारे संसर्ग में रहते-रहते वह प्राणी विवेकशील बन गया था। उसके व्यक्तित्व की एक बात बड़ी निराली थी। पता नहीं ऐसी क्या ख़ास बात थी कि दूसरे कुत्ते भी उसकी ओर खींचे चले आते थे। किसी अनजान शख्स के पदचाप को सुन वह कोमल जीव ऐसे भौंकता मानो हमारे घर की निगरानी का भार उसके कन्धों पर हो। छत से आवाज़ देने पर वह सीढियों से ऐसे ऊपर चढ़ता मानो कोई किला फतह करना चाहता हो! जनसंकुलता में नहीं पले-बढ़े होने के कारण बाकी कुत्ते अनुशासनहीनता का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। पर टॉमी इसके विपरीत था। खाद्य देने पर किसी अनुशासित बच्चे की भांति पंक्तिबद्ध ढंग से खड़े हो जाता। मई की भीषण गर्मी के मध्य वह अपने जीभ को मुँह से बाहर ऐसे निकाले रहता मानो स्वयं महाकाली की रक्त रंजित जिह्वा हो! उसे सहलाने पर किसी शिशु की तरह मुझसे लिपट जाता। डांटने पर उसकी आँखें अपराधबोध से परिपूर्ण हो जाती। उसे हम अकसर नहलाया भी करते थे। उस स्थिति में शायद वह असीम आनंद की अनुभूति करता था, क्योंकि नहलाने की प्रक्रिया संपन्न होने तक वह पूर्णतः शांत रहता। फिर धूप में ही सो जाया करता। कभी चोट लगने पर हम उसे एंटीसेप्टिक क्रीम लगा दिया करते, जिससे उसे अत्यंत राहत महसूस होती।

कालचक्र गतिशील है। जिस प्रकार हर रोज़ प्रातःकाल की मनोरम किरणों में आनेवाली रात्रि की कालिमा निहित होती है, ठीक उसी प्रकार ये सुखामोद वक्त भी अपने आखिरी पड़ाव पर था। जून की चिलचिलाती गर्मी में एक दिन अचानक टॉमी कर्राह उठा। उसके पेट में पीड़ा हो रही थी। हमने घरेलु उपचार करने की कोशिश की। पर उसका दर्द कम न हुआ। पहली रात वह दर्द की वजह से सो न सका। अगले दिन से खाना भी बंद कर दिया। आहार विहीन उसका देह शिथिल पड़ गया। दर्द भी बढ़ता चला गया। हमने डॉक्टर को बुलाया। उन्होंने कहा कि इन्फेक्शन हो गया है। दो इंजेक्शन दिए और कुछ दवाइयां दी। पर फिर भी उसका दर्द कम न हो सका। रविवार की सुबह मैंने उसे बिस्कुट खिलाने की कोशिश की, थोड़ा खाया भी। पर उसे सहसा देखकर मैं भयाक्रांत से भर उठा। कारण कि कमजोरी की वजह से वह मुझे मरणासन्न प्रतीत होने लगा। पूरे दिन कुछ नहीं खाया। सिर्फ जल ग्रहण करता रहा। दोपहर को अचेत हो गया और लम्बी-लम्बी सांसें लेने लगा। फिर भी हम उसे नियमित अंतराल पर पानी पिलाते रहे। पर शायद नियति का लिखा कोई नहीं टाल सकता। मृत्यु उसका स्पर्श करने को लालायित थी। संध्या करीब छः बजे के आसपास उसकी आत्मा शून्य में विलीन हो गयी। एक सजीव शरीर पानी के बुलबुले की भांति क्षणभंगुर हो गया। 

ह्रदय में उमड़ी पीड़ा नेत्रों से अश्रु के रूप में प्रवाहित होने लगी। मेरा शरीर चेतनाशून्य हो गया, जड़ हो गया। उसकी छवि मेरे मानस पटल पर सदा-सदा के लिए अंकित हो गयी। ऐसा पहली बार था जब मुझे विरक्ति का एहसास हुआ। वेदना के इस बवंडर के बीच माँ ने मुझे एक सीख दी। वह ये कि जिस भी व्यक्ति/वस्तु/प्राणी से मनुष्य को अत्यधिक लगाव होता है, प्रकृति उसे विरक्ति का पाठ अवश्य पढ़ाती है! 


Friday, January 18, 2019

Asceticism amidst Modernism

"Modernism" in the guise of progressivism is no less than a mockery!! It is one of the two extremes of human life, the other one being "asceticism." India is the cradle of ancient civlisation. The land has nurtured Buddhism and Jainism to full fledged form. In history, manifestations of ascetic life is evident from the Buddhist philosophy of "Ashtangika Marg" and practice of intense penance in Jainism. But how far is it relevant in the present topsy-turvy world where modernism is a buzzword and asceticism has turned obsolete.

Today, human being is residing on the edge where rationalism has been stifled by the hands of materialism. The narrow pursuit of modernism has led to erosion of ethics. Modernisation implies a positive transformation in physical and mental well-being. And this is a matter of choice. Unfortunately, we take pride in having embraced the former one. The dawn of 21st century has blown the trumpet of digitisation which echoes in every nook and corner of the world. Under the perfidious clutch of westernisation we are cloistered in virtual walls of modernity devoid of any radical change in mental outlook. Each individual is imitating others. Thus, deepening the ethical niche.

But, is the archaic concept of asceticism a panacea to curb this malady? Certainly not. Then is the "middle path" as propounded by Lord Buddha a solution? No. The reason being nobody is magnanimous enough to renounce his belongings as the incessant lust for money has gripped us in a complex web of desires. Then what asceticism calls for?? Well, my take is slightly different from its definition in oxford dictionary. When we delve deeper into the virtues of an "ascetic", we would find that "simplicity of thoughts" is the path to eternal bliss. By simplicity, I mean a mind free from evil thoughts. A mind brimming with optimism. A mind that lays emphasis on introspection rather than blaming existing circumstances or others. A mind that harbours robust hope and infuses renewed vigour and vitality into others. A mind which never looks down upon others out of superiority complex or humiliates others. A mind full of reverence for all. A mind which maintains its stability amidst vicissitudes of life. A calm and composed mind imparting serenity to the soul. A mind which eschews exaggeration and remains natural. A mind which is not tarnished by avarice. A mind capable of moulding an individual's character into brightest form possible. A mind which is directed towards achievement of cherished goals.It is worth mentioning that above characteristics of mind is the most ideal which has potential to take an individual to zenith of glory.

To sum up, asceticism is not a shallow concept of getting converted into a monk or a sage, rather, it is the enlightment of soul. The path is certainly not a cakewalk but has potential to help human beings overcome the slings and arrows of outrageous fortune. Human life can regain its lustre which is presently corroded by grief and agony. It is upto us which "path" we choose- the easy one or the right one and that will differentiate us from others. The following excerpt from poem "The Road not taken" by Robert Frost exemplifies this fact:

"Two roads diverged in yellow wood,
and I took the path less travelled by
and that has made all the difference."


Wednesday, January 16, 2019

Venezuela and Zimbabwe- Enormity of economic crisis

Recently, two nations of the world- Zimbabwe and Venezuela were ravaged by another wave of economic crisis-"hyperinflation." Hyperinflation implies skyrocketing prices of commodities in short span of time. Triggered by fragile economic policies of government, the nations were soon plunged into economic turmoil. Lets have a glance at the root cause of this menace.

Venezuela: A Latin American country bestowed with rich repositories of crude oil reserves. It generated nearly 96% of its revenue from crude oil exports. The revenue so earned was used for the import of essential commodities like food and medicines. In light of deteriorating crude oil prices in the international market, the economy began to crumble. Bereft of any other source of revenue to finance its import expenditure coupled with mounting fiscal deficit, there was dearth of commodities in the market. Consequently, prices of goods began to soar. Black marketing and hoarding fanned the flames of inflation.The enormity of the situation was so high that one million was required to buy a single loaf of bread!! Thus, epitomizing the advent of hyperinflation in the economy. The country soon spiraled into one of the worst economic crisis of all times.
The repercussions were marked by widespread hunger leading to an upward trend in crime and social unrest. The perpetrators of violence finally paved way for mass emigration. Thus, common people were the victims of callousness of its government and faced the brunt of this economic disaster. The major lacuna of government policy was lack of investment in alternative sources of revenue. Relying solely on crude oil exports, being unaware of the volatility of this sector led to ultimate collapse.

Zimbabwe: A poor country in Africa hit hard by the idiosyncrasies of political drama. The evidence of immature government is vividly depicted through amateurish policy of indiscriminate note printing to finance its populist measures. It increased subsidies in order to emancipate impoverished sections, provided money free of cost to the youth rattled by rampant unemployment and infused more and more capital in banks which were staggering with poor credit and bank run. All these were financed by deliberate printing of currency. Poor visualization of the aftermath of unprecedented money supply in the economy led to emergence of hyperinflation.
More money supply triggers more demand for goods. One point which must be reckoned is that economy of Zimbabwe was reeling with adverse agrarian and industrial productivity coupled with poor investment by government to boost these sectors. Thus, more money in hands for same quantity of goods propels inflation. The inflation had reached its pinnacle to an unbelievable trillion times!!! Imagine people carrying trucks of currency symbolizing affluence getting infinitesimal amount of goods in return. Thus, an erosion of currency value. The government later tried its best so that the situation ebbed such as endorsement of new currency and devaluation of currency. But, all these steps proved abortive. The politico-economic turmoil resulted in nationwide pandemonium leading to complete derailment of economy.

The resurgence of economic crisis is the consequence of  lackadaisical fiscal and monetary policies in an economy. Sloppy measures have no space amidst economic vagaries of modern age. Slight recklessness in policy formulation can have indelible impact on socio-economic sphere of a country which is well elucidated in the above two instances. 

Saturday, January 12, 2019

Deliberate fiscal measures- Tale of two economies

In recent past, unconventional methods adopted by Central Banks of two major economies of the world- Japan and China brought to the limelight a new face of monetary policy. The "negative interest rate policy of Japan" and "currency devaluation by China" were meant to mitigate the phase of prevailing economic stagnation. Lets have a bird's eye view of these policies.

Negative interest rate policy: The interest rate in an economy is decided by Central Bank. It varies from time to time based on the needs of economy. For example, in India, RBI has been entrusted with the responsibility of deciding interest rate or commonly known as repo rate through its bi-monthly monetary policy review. Repo rate implies the interest rate at which commercial banks borrow from RBI to meet their liquidity requirements. It is an important monetary tool used by central banks to control lending activities by commercial banks and regulate inflation. Conventionally, this rate is positive which is quite obvious, since borrowers must pay certain interest to creditors. So far all good. Imagine a situation when the interest rate is negative!! What does that mean?? Well, it simply means that borrowers get paid by creditors as an incentive to borrow further and depositors are deprived of interest they have been paid so far on savings account, instead they have to pay for their deposits. Cheaper credits and expensive deposits!!!

Japanese economy was grappling with sluggish growth rate due to poor demand of goods, low inflation rate, rampant unemployment which compelled Bank of Japan to take such course of action. The idea was to channelise the repositories of wealth which had been amassed by public in savings bank account towards healthy investments thus, triggering economic growth. More investment means enhanced production of goods leading to greater demands for labour implying more employment. More employment implies more wages leading to more demand of goods giving rise to inflation and further boosting industrial production. And ,the cycle continues.
Here, two points must be reckoned, first, inflation is not always bad for an economy. It has a brighter side also. Its presence reflects that an economy is flourishing and not lying dormant or stagnant. And, second that sometimes below zero interest rate can lead to "bank run" due to dearth of liquidity.
Although, the central bank explored new strategy to counter the ineffectiveness of conventional measures, not everything worked as anticipated. Initially, the situation showed some signs of abatement but present manifestations portray a grim picture.

Devaluation of currency:Liberalisation, which has transformed this world into a global village, is a precursor to unprecedented growth of international trade.Organisations such as WTO, formerly known as GATT have further glorified it by encouraging free and fair trade. Foreign trade involves import or export of goods in exchange of currencies. In order to bring homogeneity in the system, dollar has been chosen as standard currency. Imported goods are paid in dollars. Dollar is bought from the Central Bank in exchange of local currency (yuan/ renminbi, considering the case of China). The price of dollar is determined by dollar-yuan exchange rate. The exchange rate is inturn, regulated by market forces of demand and supply or the so called invisible hand as proposed by Adam Smith- Father of Economics. In case of rise in imports, demand for dollars increases. As demand increases, more yuan is required to buy a dollar. In other words, dollar becomes expensive, its value increases or to be precise it "appreciates". Simultaneously, yuan "depreciates". This makes imports expensive but boosts exports!! How?? The goods in foreign markets become cheap as one dollar can now buy more quantity of goods.Thus, exports bring in more dollars and forex reserves of the country show a healthy trend. This emulates the trade deficit and current account deficit of a country.
Well, the People's Bank of China deliberately interfered with the exchange rate and "devalued" yuan with respect to dollar. As explained above, devaluation was done in order to boost export of Chinese goods in the international markets. However, cases may arise when exports get squeezed under poor demand of goods in the international arena. In short run, things might appear rosy but in the long run, expensive imports can lead to "forex crisis" thus, sabotaging the economy.

Central bank is regarded as the pillar of economy shouldered with twin responsibilities of maintaining economic robustness and dissipating crisis. Its prompt and cognitive actions prevent economic evanescence thus imparting global competitiveness and exuberance to the economy. In the above two cases, the interplay of multiple factors culminated in futility of the policies but at the same time added a new dimension to the geopolitical canvas of South-east Asia!!

Wednesday, January 9, 2019

कच्चे तेल की कीमत में वृद्धि एवं भारतीय रुपये में गिरावट- एक विवेचना

वस्तुओं का विनिमय किसी भी अर्थव्यवस्था का मूलभूत आधार है। वर्तमान युग में औद्योगिकीकरण एवं वैश्वीकरण ने मानव आवश्यकताओं को और अधिक विस्तृत कर दिया है। उदारीकरण ने विपणन को प्रोत्साहित किया, जिससे वस्तुओं का क्रय-विक्रय किसी देश की सीमा तक भर संकुचित न रह गया। भारत भी इसके प्रभाव से परे नहीं है। कच्चे तेल का आयात, भारतीय अर्थव्यवस्था को सुचारु ढंग से चलाने हेतु अत्यंत आवश्यक है। कारण कि अर्थव्यवस्था का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं जो ईंधन रहित हो। 

कारण:-
अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में वस्तुओं के विनिमय के लिए "डॉलर" को मानक मुद्रा के रूप में चयन किया गया है। अर्थात  किसी भी विदेशी वस्तु के आयात के लिए व्यापारियों के पास पर्याप्त "डॉलर" राशि होनी चाहिए। भारत में यह डॉलर उन्हें भारतीय रिज़र्व बैंक के विदेशी मुद्रा कोष से प्राप्त होता है। भारतीय रिज़र्व बैंक व्यापारियों को वर्तमान डॉलर-रुपये  विनिमय दर के अनुसार रुपये के बदले वांछित डॉलर प्रदान करती है। विनिमय दर मुद्रा की माँग-आपूर्ति पर निर्भर करता है। भारतीय रिज़र्व बैंक अथवा सरकार का हस्तक्षेप केवल विषम परिस्थितियों में ही होता है, जिसमें मुद्रा की कीमत में अप्रत्याशित वृद्धि या कमी होती है। इसका तात्पर्य यह है कि यदि किसी कारणवश डॉलर या रुपये की मांग में वृद्धि हुई, तो उस मुद्रा की कीमत में बढ़ोतरी होगी और वह बाज़ार में दूसरी मुद्रा के मुकाबले मज़बूत होगा। अन्य शब्दों में वह मुद्रा महँगी हो जाएगी। कच्चे तेल के आयात में उपर्युक्त घटनाचक्र कार्य करता है। कच्चे तेल की कीमत में वृद्धि होने से व्यापारियों को अधिक डॉलर का व्यय करना पड़ता है। परिणामस्वरूप डॉलर की माँग बढ़ जाती है और उसकी कीमत में वृद्धि हो जाती है। यानी एक डॉलर को खरीदने के लिए व्यापारियों को अधिक रुपये की ज़रुरत पड़ती है। फलतः डॉलर मज़बूत एवं रुपये कमज़ोर हो जाता है। 

प्रभाव:-
1. किन्तु, रुपये में गिरावट की वजह से भारतीय वस्तुएँ विदेशों में सस्ती हो जाती हैं और निर्यात में वृद्धि देखने को मिलती है। यह स्थिति एक सुखद चित्र प्रस्तुत करती है। पर जहाँ तक भारतीय अर्थव्यवस्था का सवाल है, वस्तुओं का आयात जिस दर से होता है, उस दर से निर्यात नहीं हो पाता। अतः भारत का चालु खाता घाटा हमेशा ऋणात्मक ही रहता है।

2. भारत में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक, मुद्रास्फीति का परिचायक है। इस सूचकांक का मान ज्ञात करने में पेट्रोल, डीजल का भी कुछ प्रतिशत योगदान होता है। कच्चे तेल की कीमत में वृद्धि का सीधा प्रभाव पेट्रोल, डीजल के मूल्य पर पड़ता है। इससे मुद्रास्फीति में वृद्धि होती है, जिसके भुक्तभोगी आम लोग होते हैं। 

3. भारतीय सरकार पेट्रोल, डीजल के उत्पादन में अनुवृत्ति प्रदान करती है, जिसका वहन राजकोष से होता है। कच्चे तेल की मूल्यवृद्धि के सन्दर्भ में राजकोषीय घाटा एक वीभत्स छवि प्रस्तुत करता है। वित्तीय दायित्व एवं बजट प्रबंधन अधिनियम, 2003 के लक्ष्य के अनुरूप राजकोषीय घाटा को सकल घरेलु उत्पाद के 3 प्रतिशत तक सीमित रखना है। अतः सरकार को बढ़ती अनुवृत्ति पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है। 

कच्चे तेल के उत्पादन में "गल्फ राष्ट्र" का आधिपत्य है, जिस पर अनेक देश आश्रित हैं। संकट की किसी भी परिस्थिति में सभी व्यापक ढंग से प्रभावित होंगे। अक्षय उर्जा का चयन करके विश्व ने उस दिशा में कदम बढ़ाये हैं, जो भविष्य में कच्चे तेल की वजह से आने वाले किसी भी आकस्मिक संकट के निराकरण में लाभकारी सिद्ध होगा।

स्त्रीधन

अगहन की संध्या...और चारों ओर कोहरा ही कोहरा. हड्डियों तक को कंपा देने वाली शीत लहर के मध्य आज वह उद्विग्न थी. उसका मन बेचैन था. ठण्ड का लेशम...