Tuesday, November 15, 2022

परिवर्तन

आज वातावरण में अलग ही चहल पहल थी. चुनाव के नतीजे को लेकर रोड से ऑफिस तक सबकी ज़बान पर बस यही चर्चा थी. चाय की चुस्की लेते हुए शर्मा जी ने अख़बार उठाया और झल्लाते हुए कहा, "आज चाहे जीत किसी की भी हो, कोई परिवर्तन की बयार नहीं बहने वाली. सब केवल सत्ता के लोभी होते हैँ, जनता से लाख वायदे कर खुद हवा हो जाते हैँ .." बीच में ही बात काट कर रमेश बाबू ने कहा, "अगर ऐसा ही था तो वोट क्यों दिया?" इसपर शर्मा जी ने तपाक से बोला, " आज़ाद मुल्क, वोटिंग निःशुल्क.." आसपास के लोग ठहाका मार कर हंस पड़े.


रमेश बाबू स्वयं देशभक्त किस्म के इंसान थे. इस भांति स्वतंत्रता और मौलिक अधिकार का मज़ाक उनसे बर्दाश्त न हुआ. बोले, "लोकतंत्र में वास्तविक सत्ता राष्ट्र के नागरिकों के पास होती है. इसलिए इसे प्रजातंत्र भी कहते हैँ. पर आज हम अपनी उन्नति के लिए, अपने देश और समाज के परिवर्तन के लिए, केवल नेताओं पर आश्रित हैँ. क्या हमारा कोई दायित्व नहीं? कर्त्तव्य विमुखता का वीभत्स उदाहरण तो यहाँ हमारे सरकारी ऑफिस में प्रायः दिख जाता है..जब पगार लेते वक्त कोई ये नहीं कहता कि इतना क्यों मिल रहा...पर काम करते वक्त नाना प्रकार के बहाने याद आते...और तो और...रिश्वतखोरी के सर्प ने पूरी व्यवस्था को विषाक्त कर दिया है...क्या इस जर्ज़र स्थिति का दोषारोपण भी हम नेताओं पर करें?"


सेवानिवृत्ति की दहलीज पर पहुँच चुके रमेश बाबू के इस तर्क का उत्तर किसी के पास न था... या फिर यूँ कहें कि कोई उनसे उलझना नहीं चाहता था. शर्मा जी जो खुद एक बेईमान इंसान थे...अख़बार पर नज़र गड़ाए स्वयं को इस वार्तालाप से विलग करना चाह रहे थे.  "कृत्रिम जीवन शैली ने न केवल मनुष्य की सोच को संकुचित कर दिया है.. बल्कि उसे एक असामाजिक प्राणी भी बना दिया है...जो सिर्फ अपना उल्लू सीधा करना जानता है"- बड़बड़ाते हुए रमेश बाबू अपनी कुर्सी से उठ कर चल दिए. शर्माजी ने उनसे त्वरित टिप्पणी की अपेक्षा न की थी.


रजिस्ट्रार ऑफिस मे यूँ तो कोलाहल का माहौल रहता है.. पर आज रमेश बाबू के वक्तव्य से मानो परिवर्तन की कली प्रस्फुटित हुई हो.  पास ही बैठे जुम्मन काका मुस्कुरा रहे थे...शायद यही परिवर्तन का शंखनाद था.


स्त्रीधन

अगहन की संध्या...और चारों ओर कोहरा ही कोहरा. हड्डियों तक को कंपा देने वाली शीत लहर के मध्य आज वह उद्विग्न थी. उसका मन बेचैन था. ठण्ड का लेशम...