Saturday, February 2, 2019

टॉमी

स्वछंदता के आकाश में उन्मुक्त भाव से विचरण करने वाले उस प्राणी का ह्रदय आज उद्विग्न था एवं मन अशांत।आज उसके व्यवहार में उच्छृंखलता नहीं अपितु निष्क्रियता का भाव सहज नज़र आ रहा था। रह रह कर वह कर्राह रहा था और इस पीड़ा का अनुभव करके मैं द्रवीभूत हो उठता था। आज मेरे मन में एक अजीब सी व्यग्रता थी...अजीब सा कौतुहल था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो प्रकृति किसी अनहोनी का संकेत दे रही हो!

टॉमी...हाँ यही नाम दिया था हमने उसे। ठीक एक साल पहले हमारे घर के गलियारे में उसका जन्म हुआ था।उसके मुखमंडल पर शिशु-सी मासूमियत थी, जो किसी पाषाण ह्रदय को भी पिघलाने में सक्षम थी।पानी से भरी विस्मयपूर्ण आँखें ऐसी प्रतीत होती थीं मानो अभी छलक पड़ेंगी।भूरे-सफ़ेद चित्तकबरे रंग के उस पिल्ले को हमने अपने पास रखने का निर्णय लिया।शैशवावस्था में अमृत रूपी मातृत्व स्नेह से दूर उस जीव ने मानव सान्निध्य में अपने जीवन का अध्याय आरम्भ किया।

मार्च के उन दिनों मैं बारहवीं बोर्ड की परीक्षा दे रहा था। व्यस्तता एवं मानसिक ऊहापोह के मध्य भी मैं टॉमी के साथ कुछ समय व्यतीत कर ही लेता था। उसे दूध के साथ बिस्कुट एवं रोटी खूब भाता था। चावल उसे पसंद न था। दूध मिश्रित चावल से भी वह दूध चाट कर चावल अलग कर देता था। हम उसे प्रायः बांध कर रखते थे, अन्यथा गेट के बाहर वह ऐसे भागता जैसे स्कूल की आखिरी बेला के उपरान्त छुट्टी होने पर बच्चे स्वतंत्रता की ताजगी में सांस लेते हैं। गेट के बाहर दूसरे बड़े कुत्तों का डर भी था। अतः जब भी वह बाहर निकलता, उसके पीछे मैं या मेरे घर से कोई ज़रूर जाता और उसे स्नेहपूर्वक बुलाता। बुलाने पर वह फर्राटेदार गति से हमारी ओर आता और हमसे क्रीड़ा करना चाहता। हमारी छत्रछाया में वह पल्लवित, पुष्पित होने लगा और समय के परिप्रेक्ष्य में अनुशासित एवं व्यवहारकुशल बन गया। पहले की अपेक्षा उसके व्यवहार में हमारी अवहेलना नदारद हो गई। परिणामस्वरूप हमारा भावात्मक लगाव प्रगाढ़ होने लगा। जुलाई में मैं आगे की पढाई के लिए बाहर चला गया। बाद में घर फ़ोन किया तो ज्ञात हुआ कि जिस दिन मैं घर से निकला, उस दिन वह अत्यंत दुखी था.....शांत था......मानो उसके चेहरे की कांति शून्यता के तमस में विलुप्त हो गयी हो।


साल भर के लम्बे अंतराल के पश्चात मैं ग्रीष्मावकाश में घर आया। टॉमी एक वर्ष का हो गया था। उसके व्यवहार में परिपक्वता थी। हमारे संसर्ग में रहते-रहते वह प्राणी विवेकशील बन गया था। उसके व्यक्तित्व की एक बात बड़ी निराली थी। पता नहीं ऐसी क्या ख़ास बात थी कि दूसरे कुत्ते भी उसकी ओर खींचे चले आते थे। किसी अनजान शख्स के पदचाप को सुन वह कोमल जीव ऐसे भौंकता मानो हमारे घर की निगरानी का भार उसके कन्धों पर हो। छत से आवाज़ देने पर वह सीढियों से ऐसे ऊपर चढ़ता मानो कोई किला फतह करना चाहता हो! जनसंकुलता में नहीं पले-बढ़े होने के कारण बाकी कुत्ते अनुशासनहीनता का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। पर टॉमी इसके विपरीत था। खाद्य देने पर किसी अनुशासित बच्चे की भांति पंक्तिबद्ध ढंग से खड़े हो जाता। मई की भीषण गर्मी के मध्य वह अपने जीभ को मुँह से बाहर ऐसे निकाले रहता मानो स्वयं महाकाली की रक्त रंजित जिह्वा हो! उसे सहलाने पर किसी शिशु की तरह मुझसे लिपट जाता। डांटने पर उसकी आँखें अपराधबोध से परिपूर्ण हो जाती। उसे हम अकसर नहलाया भी करते थे। उस स्थिति में शायद वह असीम आनंद की अनुभूति करता था, क्योंकि नहलाने की प्रक्रिया संपन्न होने तक वह पूर्णतः शांत रहता। फिर धूप में ही सो जाया करता। कभी चोट लगने पर हम उसे एंटीसेप्टिक क्रीम लगा दिया करते, जिससे उसे अत्यंत राहत महसूस होती।

कालचक्र गतिशील है। जिस प्रकार हर रोज़ प्रातःकाल की मनोरम किरणों में आनेवाली रात्रि की कालिमा निहित होती है, ठीक उसी प्रकार ये सुखामोद वक्त भी अपने आखिरी पड़ाव पर था। जून की चिलचिलाती गर्मी में एक दिन अचानक टॉमी कर्राह उठा। उसके पेट में पीड़ा हो रही थी। हमने घरेलु उपचार करने की कोशिश की। पर उसका दर्द कम न हुआ। पहली रात वह दर्द की वजह से सो न सका। अगले दिन से खाना भी बंद कर दिया। आहार विहीन उसका देह शिथिल पड़ गया। दर्द भी बढ़ता चला गया। हमने डॉक्टर को बुलाया। उन्होंने कहा कि इन्फेक्शन हो गया है। दो इंजेक्शन दिए और कुछ दवाइयां दी। पर फिर भी उसका दर्द कम न हो सका। रविवार की सुबह मैंने उसे बिस्कुट खिलाने की कोशिश की, थोड़ा खाया भी। पर उसे सहसा देखकर मैं भयाक्रांत से भर उठा। कारण कि कमजोरी की वजह से वह मुझे मरणासन्न प्रतीत होने लगा। पूरे दिन कुछ नहीं खाया। सिर्फ जल ग्रहण करता रहा। दोपहर को अचेत हो गया और लम्बी-लम्बी सांसें लेने लगा। फिर भी हम उसे नियमित अंतराल पर पानी पिलाते रहे। पर शायद नियति का लिखा कोई नहीं टाल सकता। मृत्यु उसका स्पर्श करने को लालायित थी। संध्या करीब छः बजे के आसपास उसकी आत्मा शून्य में विलीन हो गयी। एक सजीव शरीर पानी के बुलबुले की भांति क्षणभंगुर हो गया। 

ह्रदय में उमड़ी पीड़ा नेत्रों से अश्रु के रूप में प्रवाहित होने लगी। मेरा शरीर चेतनाशून्य हो गया, जड़ हो गया। उसकी छवि मेरे मानस पटल पर सदा-सदा के लिए अंकित हो गयी। ऐसा पहली बार था जब मुझे विरक्ति का एहसास हुआ। वेदना के इस बवंडर के बीच माँ ने मुझे एक सीख दी। वह ये कि जिस भी व्यक्ति/वस्तु/प्राणी से मनुष्य को अत्यधिक लगाव होता है, प्रकृति उसे विरक्ति का पाठ अवश्य पढ़ाती है! 


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