Sunday, March 31, 2024

स्त्रीधन

अगहन की संध्या...और चारों ओर कोहरा ही कोहरा. हड्डियों तक को कंपा देने वाली शीत लहर के मध्य आज वह उद्विग्न थी. उसका मन बेचैन था. ठण्ड का लेशमात्र असर भी उस पर न पड़ रहा था. कारण कि किसी बड़े घर-परिवार के लोग उसे देखने आ रहे थे. वह चेतनाशून्य थी. होंठ जम चुके थे.. ठण्ड से नहीं.. अपितु वेदना से.. आतंरिक रूदन से...


बीएससी प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होने के बाद उसने अपने पैरों पर खड़े होने का निश्चय किया था. पर सामाजिक मर्यादाओं ने मानो उसके सपनों के पर ही काट दिए. घर की बड़ी बेटी होने के नाते सबसे पहले उसकी विदाई तय थी. पीछे छोटे भाई बहन तो थे ही, वृद्ध माँ बाप की भी चिंता थी. आज तक तो ज़िद कर के स्नातक कर लिया.. पर अब आगे उसे धुंध ही धुंध नज़र आ रहा था. वह मना भी तो नहीं कर सकती थी.


"दीदी...लड़के वाले आ गए", छोटी ने उत्साह से कहा. कीर्ति ने धीमे स्वर में कहा, "हाँ, मैं तैयार हूँ." उसकी मनोदशा को समझने वाला कोई नहीं था. वह तो बस किसी चमत्कार की उम्मीद कर रही थी. उसने मन ही मन भगवान को याद किया और चाय लेकर किचन से बाहर आ गयी. कीर्ति के पिता श्याम बाबू ने उत्साह भरे स्वर में परिचय दिया,"ये है हमारी बिटिया... बीएससी किया है इसी साल... रसोई से लेकर सिलाई कढ़ाई सब कुछ जानती है... पूरा घर अच्छे से संभाल लेती... स्कूल से लेकर कॉलेज तक सब की लाडली है... " बात को बीच में ही काटते हुए सेठ जी बोले, "वो सब तो ठीक है.. श्याम बाबू, आपने कहा तो लड़की सुशील ही होगी... मुद्दे की बात करते हैँ... तो सुनिए आपको 5 लाख नकद, सोने के जेवर, घर गृहस्थी के तमाम सामान और एक मोटरगाड़ी हमारे राजू के नाम भेंट करनी होगी. तभी रिश्ता पक्का होगा. अरे.. घबराइए नहीं.. स्त्रीधन समझ कर दे दीजिये.. आखिर ससुराल भी तो बिटिया का ही घर है.."


श्याम बाबू को कुछ समझ नहीं आ रहा था.. आखिर इतना बड़ा सेठ इतना लोभी कैसे हो सकता है? अपनी बिटिया के गुणों को नज़रअंदाज़ कर उसे रुपयों मे तौल रहा है? कुछ देर मौन रहने के बाद श्याम बाबू बोले, " सेठ जी, ये तो बहुत ज़्यादा हैं, बिटिया तो पढ़ी लिखी है...नौकरी करने में भी सक्षम है... अगर अवसर मिले तो.." सेठ जी तिलमिला कर बोले," पढ़ी लिखी का मैं अचार डालूँ... देखिये श्याम बाबू जितना बोला हूं उससे एक पैसा कम नहीं.. अपनी बिटिया देनी है तो दो.. वरना हमारे राजू के लिए दूसरी देख लूंगा." स्वाभिमानी कीर्ति अपने पिता की बेज़्ज़ती खड़ी खड़ी न सह सकी... ऊँचे स्वर में सेठ जी को कहा, "कोई बाजार नहीं है जो मेरी बोली लगा रहे... अगर दूसरी देखनी है तो देख लीजिये... आप स्वतंत्र हैं..."श्याम बाबू बीच बचाओ की कोशिश करते ही थे कि तिलमिला कर सेठ जी उठे और चिढ़ कर बोला," हुँह...देख लो पढ़ा लिखा कर बहुत ही काबिल बना दिया है इसके बाप ने...चलो बेटा ये रिश्ता नहीं हो पायेगा..." यह कहते हुए वे दरवाज़े कि ओर चल दिए... इतने में कीर्ति ने तपाक से बोला, "मेरी काबीलियत का तो पता नहीं पर अपने बेटे को इतना काबिल बना देते कि वह किसी "स्त्रीधन" पर निर्भर होने कि बजाय आत्मनिर्भर बन जाता... आप जैसे बाहुबली लोग ही समाज में कुरीतियों को पनाह देते हैं और बढ़ावा भी.... " सेठ जी मौन होकर निकल गए.


कीर्ति को समझ नहीं आ रहा था कि उसने सही किया या गलत... पर इतना ज़रूर था कि अपने और अपने परिवार कि गरिमा को भंग नहीं होने दिया. श्याम बाबू वैसे तो शादी को लेकर परेशान रहते थे.. पर फिलहाल अपनी "पुत्री रूपी धन" को परिपक्व स्थिति में देखकर मन ही मन मुस्कुरा रहे थे. 

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अगहन की संध्या...और चारों ओर कोहरा ही कोहरा. हड्डियों तक को कंपा देने वाली शीत लहर के मध्य आज वह उद्विग्न थी. उसका मन बेचैन था. ठण्ड का लेशम...